Friday, May 8, 2015

बस यूँही

आँखों में वैश्याए रहती है 
और जुबान में भड़वे 
जो बेच सकते है मुझे 
किसी और हसरतभरी आँखों को 
मुझसे बड़े किसी और भड़वे को 
क्यूंकि वो जानते है कोडी से कुतुबमीनार तक जिस्म की कीमत !
जिस्म ही बाजार है 
जिस्म ही खरीदार है 
नल के पानी से लेकर सुबह की चाय 
और रात के सस्ते दारु तक सबका 
जिस्म से सरोकार है !
किसी भद्दी चमड़ी को छू लेना 
आसमान छू लेने के बरोबर भले न गिना जाता हो 
में फिरभी कहता हु यह दुनिया एक वैश्यालय है 
जहाँ भूख के अलावा न कुछ पैदा होता है 
न मिटता है 
सरकारी रोड जैसी हवस बिना कोई आवाज़ उठाए पड़ी रहती है चुपचाप 
अपने अपने खड्डों के साथ 
जिस पर मेकअप की तरह फिरता रहता है बुलडोज़र आतेजाते 
ताकि अमर रह सके हमारा सौंदर्यबोध !
चहरे बदलते रहते है 
बदलती रहती है तोंद और निकर की साइज़ 
और काली मटमैली रोड यूँही पड़ी रहती है खामोश 
कुत्तो बिल्लो कीड़ो-मकोड़ो से लतपत !
सच कहूँ तो सिर्फ मै नहीं 
हर सख्श खुद बिकता है - खरीदता है 
करता रहता है अपने हिस्से की भड़वाई 
बेचता रहता है अपने ताबे का जिस्म !
चाहे ठुकाई हो या किसी ठेके पर मजदूरी
हर इंसान पहले पैदायशी मजदूर है 
और सारी दुनिया एक रेडलाइट एरिआ 
हम इसे जिंदगी समझ लेते है बस यूँही !

- मेहुल मंगुबहन, ६ अप्रैल २०१५, अहमदाबाद 

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