Thursday, February 7, 2013

कलम की आग


कलम की आग भी कोई आग है ?
मौसम बदलते ही बर्फ बन जाती है कमीनी !
न घर का चूल्हा जला पाती है 
न चोराहे पर अलाव लगा पाती है !
कलम की आग भी कोई आग है ?

भेसे के आगे बजती बिन की तरह, 
कलम एक राग बनके रह जाती है, 
खुद ही आलापे - खुद ही सुने ! 
सर पर जब बन्दुक तनी हो लब्झ काम नहीं आते,
सारे अक्षर - सार ग्यान हो जाता है बेकार !
लिखते लिखते दांतों में कलम चबाने का शौक भी हवा हो जाता है 

चाहे लाख कविताए लिख दे पिछडो की प्यास पर,
कलम कतई नहीं बन सकती साफ़ पानी का वो गिलास जो उसकी जरुरत है !
कलम से बेशक बन सकता है नरम रोटी का चित्र
पर कलम खा नहीं सकता कोई !
पेट नहीं भरता कलम से !

भर दे पूरी लायब्रेर्री किताबो से,
चाहे कविताओ की लाइन लगा दे,
नए नाटक-कहानिओ का डाल दे डेरा,
क्या हम रोक पायेंगे उस बुलडोज़र को
जो निकला है पूरी बस्ती कुचलने !
कलम बस्ती की तरह होती है !
और बस्ती में बड़ी मुश्किल से जलते है चूल्हे !
जैसे बस्ती का होना कोई मायने नहीं रखता
कलम की आग भी कोई मायने नहीं रखती !
क्यूंकि जब सर पर बदूक तनती है,
जब लाठिया बरसती है,
जब अदालतों से, कचहरियो से आते है उलटेसीधे पैगाम,
कविताए सुन्न हो जाती है,
सारा ग्यान दर्शन रह जाता है धरा, 
और आखिर खून फ़ैलता जाता है कागज पर ! 

- मेहुल मकवाना, 7 फरवरी, अहमदाबाद 

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