भाड़ में जाए तुम्हारा देश और भाड़ में जाओ तुम भी !
क्यूंकि न तो हमें किसी देश की जरुरत थी न तुम्हारी !
बड़ी आसन थी जिन्दगी जब यह जमीं मुल्क न थी !
दिनभर चलते रहते पांव रात होते होते अपने आप घर पहुँच जाते थे !
और हम जंगल में मोसम को ओढ़कर
ऐसे सो जाते थे की शेर की दहाड़ भी लोरी सुनाई देती थी !
तब नदी सरकार की रखेल नहीं थी
तब जमीं खोद्नेका मतलब सिर्फ बिज डालने से था !
तब लड़ना आसान था
चार कदम चलने पर बदल जाते थे सारे कायदे - कानून !
तुमने हमें भाई कहकर सारे कानून एक करके बना दिया अखंड राष्ट्र का साम्राज्य !
भाड़ जाए तुम्हारा यह अखंड राष्ट्र का साम्राज्य
और इसके सारे कानून जिसने नींद में ही हमारे पांव के निचे से जमीं छीन ली !
भाड़ में जाए तुम्हारा लोकतंत्र जिसके आकाश ने हमारे जंगल को आग लगा दी !
महाभारत से यूनियन ऑफ़ इंडिया तक यही होता रहा है !
भाड़ में जाये तुम्हारी सारी संस्कृति जिसकी आड़ में तुम
मसलते रहे हमारे बेटो को !
नोचते रहे हमारी औरतो को !
भाड़ में जाए हकीकतो को सजाकर खूबसूरत बनानेवाली तुम्हारी सारी कलाए !
भाड़ में जाए साँस को भी धंधा बनानेवाला तुम्हारा स्टोक मार्केट !
भाड़ में जाए प्रधानमंत्री और उसकी कुर्सी
भाड़ में जाए राष्ट्रपति और उसका प्रोटोकोल !
भाड़ में जाए न्याय के नाम पर धंधा करती न्यायपालिका !
भाड़ में जाए संसद और उस पर लगा राष्ट्रध्वज भी !
हमने बहोत कोशिश की तुम्हारी सारी बाते सच मानने की !
एक बहेतर कल के सपने में हम भूल गए हम हमारा सारा इतिहास
लेकिन तुमने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा !
तुमने हमारे कंधे पर बदूक रख हमारी पुरखो को मरवाया
और अब हमारी आनेवाली नस्लों की भी नसबंदी चाहते हो
ताकि चलता रहे तुम्हारा राज !
पर में कहता हु की भाड़ में जाए तुम्हारा राज !
अब जब गंवाने के लिए जान के अलावा कुछ नहीं बचा !
अब हम तुम्हारे कारखानों की मशीनों पर पेड़ लगायेंगे !
कोशिश करेंगे की उसकी दीवार में जड़ दें तुम्हे !
अब हम तुम्हारे स्टोक मार्किट के सांड की दूम पकड़कर उसे गोल गोल घुमाएंगे
इतना घुमाएँगे की हवा से फटते फटते हो जायेगा गुम
फिर हाथ में रह गई उसकी दूम से हम हंटर बनायेगे
और हांकेंगे तुम्हे
ठीक उसी तरह जिस तरह तुम हमें हांकते आये हो !
अब हम संसद के बीचोबीच जाकर हगेंगे और राष्ट्रपति भवन में पेशाब करेंगे
और जोर जोर से चिल्लायेंगे
भाड़ में जाओ तुम,
भाड़ में जाये तुम्हारा देश,
भाड़ में जाये सबकुछ !
- मेहुल मकवाना, २३ अप्रैल २०१३
वाह.....मेहुल वाह----- जबदस्त... फेसबुक के काव्यालय फोरम में शेर कर रहा हूँ.... :)
ReplyDeleteआक्रोश जायज़ है..............
ReplyDeleteअनु
bahut sundar..... desh nhi ye hukumaten hain.
ReplyDeleteये आक्रोश ...ये कुंठा सदियों पुरानी है .....और फिलहाल मौसम बदलने के आसार भी नहीं :(
ReplyDeletebahut badhiya mehul ji......yahi tewar chahiye aaj ke halaat me
ReplyDeleteMaja aavi gai!! bahu Saras!!
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