Thursday, January 16, 2014

आदमी

कितना अजीब प्राणी है आदमी 
हर ऱोज कहीं न कहीं 
किसी न किसी तरह 
सिकुड़ जाते है उसके सारे अंग बस एक अंग में !
हाथ हाथ न रहकर हथियार बन जाते है 
आखे बन जाती है विर्य का ज्वालामुखी 
कदम उठते भी है तो शिकार को 
सिर्फ कहने को उसने बता रखी है 
हर औरत के दिमाग कि जगह अपने पाँव 
लेकिन आदमी का खुद का दिमाग कैद है एक अंग में !
अक्सर में सोचता हु आदमी का दिमाग उसके मस्तिष्क में नहीं 
शिश्न में बसता होगा ! 
क्यूंकि हररोज कहीं न कही से 
अखबारो में आती रहती है 
किसी जीते जागते आदमी के सिर्फ लंड बन जाने कि खबर !
कभी घिन्न आती है 
कभी तरस !
कभी गुस्सा 
कभी नफरत !
जिसके सारे अंग सलामत हो  
वो आदमी अचानक से कोई एक ही अंग कैसे बन जाता है ?
कभी सवाल होता है, 
कभी उलझन !
सारे अंग सिकुड़कर सिर्फ लिंग बन जाना आदमी का पैदायशी है क्या ?
सवाल होता है मुझे !
कभी हा-कभी ना 
जवाब मिलता रहता है !
जब सारे अंग सिकुड़कर एकलिंग बन जाते है तब आदमी 
अजरामर हो जाता है !
हर गुप्तरोग से परे 
हर कानून से ऊपर 
हर रिश्ते से बेखबर 
आदमी के खड़े या बुझे शिश्न पर 
अपनेआप चढ़ जाता है कोई अज्ञात कंडोम 
या कुछ ख़ास तरह कि मांशपेशियों में तब्दील हो जाता है उसका लिंग !
जैसे कोई खास कौम 
जैसी कोई खास वंश 
जैसी कोई खास धर्म 
जैसी कोई खास रुतबा 
चाहे शिश्न खड़ा हो या बैठा 
फिर कौम की इज्जत बस लिंग से  
फिर अपना गौरव बस लिंग से  
फिर धर्मं का जयकार बस लिंग से 
फिर सारी ताकत, सारा वैभव 
सारा आधिपत्य बस एक अंग से !
बड़ी अजीब बात है 
सारे अंग सिकुड़कर के सिर्फ एक अंग हो जाने से डरता हु में 
खुद के सारे अंगो को बार बार गौर से देख्ता रहता हु 
कही हाथ से या फिर पैर से फूट तो नहीं रहा कोई अनचाहा लिंग !
कहीं आँख में जबरन उत्तर तो नहीं आया वीर्यपात !
सिर्फ इसलिए नहीं की मै आदमी हु 
बल्कि इसलिए की आनेवाले वक्त में 
गर औरत के भी सारे अंग सिकुड़कर एक हो जाने लगेंगे तब क्या होगा ?
क्या तब हिसाब बराबर होगा या हाल बद से बदतर होगा ?
मै नहीं जानता क्या होगा 
जिसके सारे अंग सिकुड़कर सिर्फ शिश्न में परिवर्तित हुए हो कभी  
शायद उसे पता हो !

- मेहुल मंगुबहन, १५ जनवरी २०१३, अहमदाबाद 

1 comment :

  1. पैनी रचना. शिश्न के एकाधिक पर्यायवाची शब्द दिए है-- आवश्यकता एक की भी नहीं.रचनाका उत्ररार्ध असरदार.

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