Monday, June 9, 2014

द्रौपदी ३ : चीरहरण

रुक जाओ कृष्ण 
चीर की तुम्हारी यह खैरात नहीं चाहिए मुझे 
आज तुम मुझे वस्त्र दोगे 
और कल फिर से मुझे वस्त्रहीन कर दोगे 
सौंप दोगे तुम मुझे उन पांचो के हवाले
फिर से उपवस्त्र बनाकर !
रुक जाओ कृष्ण !
इस भरी सभा में हो जाने दो मुझे नग्न 
आखिर मेरा नग्न शरीर ही तो सत्य है न सबके लिए !
तभी तो तुमने मेरे पांच पति को 
कह दिया था मेरे पिछले जन्म के कर्म का फल ! है न ?
अब यह मेरे कौन से नीच कर्मो का फल है बताओ कृष्ण ?
चिर रहने दो, अब आये हो तो 
यहाँ सभा की प्रत्येक आँख जो मुझसे मैथुन कर रही है 
तनिक उनके पूर्व जन्म के उच्च कर्मो के बारे में भी कुछ कहते जाओ कृष्ण !  
अब नहीं चाहिए मुझे तुम्हारे वस्त्र 
हो जाना चाहती हु में आज सम्पूर्ण नग्न 
ताकि सारा संसार जान ले हस्तिनापुर का सत्य
पता तो चले सबको की यहाँ प्रत्येक घर में एक द्रौपदी है 
जिसके न जाने कितने पति है 
जिसे रोज लगाया जाता है दाव पर 
जिसका वजूद है सिर्फ किसी मूंछ की ताव पर !
आज जब पांडव पर बन आई तुम आ गए हो मुझे बचाने
पर कल क्या होगा कृष्ण ?
में निर्वस्त्र हो जाउंगी उस पल के बाद क्या होगा कृष्ण ?
फिर से शतरंज बिछेगी, फिर लगेंगे दाव मुझ पर 
फिर से सौदा होगा भोगने के अधिकार का
आखिर यही तो है इस महान हस्तिनापुर में 
जिसकी लाज बचाने फिर से तुम आये हो !
अब बहोत हो चूका यह ढोंग कृष्ण 
अब बहोत हो चुकी राज परम्परा भी 
इस आर्य धर्म की जयजयकार बहोत हो चुकी !
मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे वस्त्र कृष्ण 
लौट जाओ अपने गोकल-मथुरा 
और हो सके तो लौटा दो उन गोपियों के वस्त्र पहले!
में तो आज इस भरी सभा में नग्न हो जाना चाहती हूँ 
हो जाना चाहती हु पूर्ण रूप से वस्त्रहीन 
फिर जो चाहे अंजाम हो मेरा ! 


- मेहुल मंगुबहन, ०४ जून २०१४ अहमदाबाद 

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