सच कहु तो में कुछ नहीं चाहता हु
न वो उजड़ी दुकाँ सुधारना चाहता हु
न ही जख्मो पर कोई पट्टी लगाना चाहता हु !
जल गए घरो के मलबो से अब तो धुंवा भी निकलना बंद हो चूका
अब कब तक राख कुरेदू मै ?
कल जो फूट पड़ा था झरना रक्त का
अब वो सेकड़ो झरनों से मिलता बन चूका है दरिया
अब इतनी सहज है उसकी धार
की मै कैसे बोलू इसीमे डूबी थी मेरी नाव !
गुजर चुके लोगो की तस्वीरों पर
वक्त जमा रहा है बालू
उसी नदी के किनारे से खिंची हुई !
चोराहे के टावर पे घडी वही है रुकी हुई !
अब न मै लड़ना चाहता हु
न में न्याय पाना चाहता हु !
न कोई मुआबजा चाहता हु रक्तचाप का !
में कुछ नहीं चाहता हु,
उस घडी को वापिस घुमाने के अलावा !
कोई आज समय को घुमा दे वापिस उस लम्हे तक
जहाँ से बात शुरू हुई थी !
वो गाड़ी वक्त से निकले,
वक्त पर स्टेशन आए,
हँसते-खेलते लोग
उतर जाए -चढ़ जाए !
हरी झंडी दीखते ही आगे चलती बने गाड़ी !
वो गाड़ी, जो स्टेशन को लांधकर
लावा बन कर फ़ैल गई थी चारो दिशा में
मै अब बस उस गाड़ी को सही सलामत
उसके घर तक छोड़ना चाहता हु !
मै अब और कुछ नहीं चाहता हु !
मेहुल मकवाना, १ मार्च २० १ ३ , अहमदाबाद
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