Saturday, March 29, 2014

एक रात

एक रात 
में समंदर पे सोया था 
लहरो कि लोरिया सुनते सुनते आँख ऐसी लगी 
जेसे पूरे मयखाने का नशा हो !
भोर हुयी तो देखा हर रोंगटे से सूरज फूट पड़ा था !
रातभर लहरो की लोरी पे थाप देती 
माशूका के स्पर्श सा सुकून देती सारी हवा 
भाप बनाकर नापने लगी थी आसमान !
आह, क्या सुबह थी !
सूरज ! इतने सारे ?
मेरे इतने करीब, इतने पास ? 
जेसे की कोई तिल हो चमड़ी पर !
इतनी ख़ुशी की गुदगुदी सी होने लगी मुझे तो 
मुझे लगा यही है प्रकाश 
या यही है प्रकाश का अर्थ, 
या शायद स्वयं में ही हूँ प्रकाश अब तो !
लम्बी सांस में आती भाप ने गटक लिए झझबे !
डर का एक लम्बा पल निकल गया दौड़ के !
लगा हर रोंगटे से निकलते सूरज 
कही अब निगल न ले सबकुछ !
और फिर हुआ भी वही !
हर रोंगटे से निकलता सूरज 
दुसरे रोंगटे से निकलते सूरज को खाने को बेताब था !
धमासान मच गया 
समंदर में नहीं, मेरे में !
सारे सूरज एक साथ टूट पड़े मुज पर 
एक साथ सेंकडो भट्ठीओ में उबलने लगा में !
हर रोंगटा बनता गया बड़ा
होता गया गहरे डरावने पाताल कुँए सा !
मानो सारे रोंगटे बिना मेरी इजाजत बन गए कुछ और ही !
सारे पंछी गायब, सारी मछलिया गुम
न कहीं किनारा न कहीं नाव ! 
बस में अकेला 
और हर रोंगटे से फूटफूटकर बड़े होते सूरज !
धीरे धीरे वो इतने बड़े होते चले गए कि 
कम होता गया मेरा मेरा खुद का कद ! 
एक पल तो मुझे लगा कि 
अब होगा विस्फोट  
शायद ऐसा जो पढ़ा था किताबो में 
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ
सूरज निगलते रहे एक दूजे को लगातार,  
रोंगटे रेंगते रहे बारबार जब तक फिर से न रात हुयी 
और में बस एक बौना बनकर रह गया !

- मेहुल मंगुबहन, २७ मार्च २०१४, अहमदाबाद 

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