Friday, December 2, 2011

लाल खून


गलत बात है,

सरासर गलत,

है सबका खून लाल

यह जुठ है महज !

हमे गलत सिखाया है विज्ञान ने ,

हमे गलत बताया है दादा-परदादाओ ने,

और हम स्कूल मे भारतमाता की जय चिल्लाते बच्चो से नादान,

अब तक यही समझते रहे कि सबका खून है लाल !

जबकि हकीकत तो यह है कि उसके रंग है कई !

पिला , पचरंगी, सत रन्गी...या बेरंग !


किसी का खून नल का पानी होता है

किसी का खून गटर का पानी होता है !

और किसी का मिनेरल वोटर भी !

रंग, रूप, स्वाद और दर्जे में है सब खून अलग,


गलत बात है,सरासर गलत,

है सबका खून लाल यह जुठ है महज !

किसी किसी का खून होता है हरा,

तो किसी का होता है केसरिया,

किसी किसी का बगुले कि तऱ्ह सफेद,

और ज्यादातर लोगो का होता है काला !

अमावस की रात जैसा,

गाढा काला मसमेला खून आम है इंसानों में !

कुछ कुछ लोगो में तो नीला या गुलाबी रंग भी पाया गया है !

है सबका खून लाल

यह जुठ है महज !


जिनकी नजरे जुर्म न देख पाती है,

और आंखे आगबबुला हो जाती है !

उनका खून होता है लाल !


जिनके हाथो मे होता है मेहनत का दम,

किसी को रोंद कर जो नही रखते कदम,

उनका खून होता है लाल !


या फिर खून उनका लाल होता है

जो भूखे प्यासे बच्चो में,

जीवन के रंग नए खोज पाते है !

जो ना सुख मे इतराते है

और दुख मे नही कतराते है,

कोई सोच नई दे जाते है,

सलीब पे सर हो फिर भी ,

हलक मे गीत नही समाते है !


है सबका खून लाल

यह जुठ है महज !

क्योंकि,

लाल खून तो खौलता है,

इतिहास को टटोलता है !

नीले आसमान से उठकर,

बंजर खेतो को पातळ समेत तोलता है !

कौम या जाती के खिलाफ बोलता है !

लाल खून होता है लोहे जैसा,

जो कारखाने की भट्टी से नहीं

इंसान के पसीने से पिघलता है !

दिल में सुराग रखनेवाले चंद लोग,

लाल खून को आँखों से बनाते रहते है !

और बस्तियो में बहाते रहते है !


फिर,

उस बहते लाल खून से बनती है विन्सेंट की पेन्टिंग्स,

उस बहते लाल खून को बुनता है कोई गाँधी चरखे में,

उस लाल खून से लटकता है कोई भगतसिंह फांसी पर,

उस लाल खून को संविधान में सींचता है कोई आंबेडकर,

उस बहते लाल खून से लिखते है कबीर, फैज़, पाश,ग़ालिब या गोर्की !

उस बहते लाल खून से गाती है बेगम, गाते है नुसरत और बीटल्स भी !


यह लाल खून आवाज बन घूमता रहता है,

गाँवो में, शहरो में, जंगलो में, खेतो में हाल पूछता रहता है,

ढुंढता रहता है नब्ज कोई जिस में वो बह पाए,

तकता रहता है आंख कोई जिसकी नजर बन पाए !

गली महोल्लो से गुजरकर,

थका-हारा और मायूस होकर,

पूँजिपति और दिशाहीन समाजवादियो से भी मुकरकर,

यह लाल खून आज अपनी चौकठ पर आया है !

आओ अपनी नब्ज टटोले,

इस कमबख्त सूरज को आँखों में पैले,

और इस बहते लाल खून को झेले !

या फिर

ऐसा कुछ भी अगर न कर पाए,

कमसेकम इतना समझ ले !

है सबका खून लाल,

यह जूठ है महज !


मेहुल मकवाना- २४/११/२०११, अहमदाबाद


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