Saturday, December 3, 2011

खुशबु की कविता

हसीन जिस्म की हो या महंगे परफ्यूम की,
गुलाब के फूल की हो या मिठाई की,
या फिर चाहे सस्ती अगरबत्ती की हो !
बेशक,
खुशबुए लुभाती है मुझे !
इतना लुभाती है की नाक से घुस कर,
चिपकने लगती है बदन पर !
मदहोश करने लगती है !
सच में बहुत अच्छी लगती है मुझे खुशबुए !
पर में तो गटर की नाली से निकला,
सरकारी संडास के आगे खेल बड़ा हुआ,
कारखाने के कचरे से खिलोने ढुंढने वाला,
एक निहायत कमीना और बदबूदार अनछुआ बंदा हु !
मै चाहकर भी खुश्बुओ बारे में लिख नहीं पाऊंगा !
जब तक सारी बस्ती की बदबू तुम्हरे जेहन में ठूंस न जाये,
जब तक मुर्दा जानवर ढ़ोने का बोज़ तुम्हारे कंधे पर न आये,
जब तक तुम कर न लो एक बार गटर के आगे गंगा की स्तुति,
जब तक तुम ये मान न लो की बदबूदार है तुम्हारी संस्कृति,
सारी खुश्बुओ को परे कर मै लिखता रहूँगा बदबू !
तुम पाओगे मेरी कविता में सिर्फ और सिर्फ दुर्गन्ध,
इतनी कातिल दुर्गन्ध की फटेगा तुम्हारा माथा !
हो जाओगे तुम सुन्न,
धरा रह जायेगा तुम्हारा शुद्ध खुशबूदार आचार विचार,
और ख़त्म हो जाएगी तुम्हारी सूंघने की ताकत !

- मेहुल मकवाना, ३ / १२ / २०११, अहमदाबाद

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